(एनएलएन मीडिया – न्यूज़ लाइव नाऊ) : क्या केंद्र एवं राज्य सरकार के मंत्री और उनके अधिकारी यह बात नहीं जानते कि ईंधन कीमतें सरकारों को बड़ा आर्थिक नुकसान दे सकती हैं? बेशक जानते भी हों, लेकिन अंतरराष्ट्रीय संकेतों और देश की वर्तमान स्थितियों के आगे सरकारें बेबस हैं। ऐसे में देश के आम आदमी को राहत न दे पाने को लाचार सरकारें अगर वाकई में इस दिशा में कुछ करना चाहती है तो उन्हें बड़े नीतिगत फैसले लेने होंगे।क्रूड में रह-रह कर आ रहा उबाल और डॉलर के मुकाबले लगातार पतला होता रुपया पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों की आग को भड़का रहा है। सरकारें फिलहाल दोहरे असमंजस में है। वह न तो अंतराष्ट्रीय स्तर पर क्रूड की कीमतों को कम करने के लिए कुछ कर सकती है और न ही वो भारत में ईंधन की कीमतों को कम करने के लिए कुछ कर पा रही हैं। ऐसे में यह समझा जाना जरूरी है कि आखिर सरकारें पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों को कम करने को लेकर इतनी बेबस क्यों है?
- पेट्रोलियम पदार्थ केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारों के लिए राजस्व का बहुत बड़ा जरिया हैं। केंद्र पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी वसूलता है जबकि राज्य इस पर वैट के जरिए कमाई करते हैं। अगर प्रति लीटर की बात करें तो सिर्फ एक्साइज और वैट की हिस्सेदारी 30 से 38 रुपये प्रति लीटर के आस पास बैठती है। इसके अलावा डीजल पर रोड टैक्स, पेट्रोलियम मशीनरी पर कस्टम ड्यूटी के साथ जीएसटी और कारपोरेट टैक्स का बड़ा हिस्सा भी शामिल होता है। ऐसे में न तो केंद्र एक्साइज ड्यूटी कम करने को तैयार है और न ही राज्य वैट को कम करने को राजी होंगे।
- वहीं कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी कहा गया है कि अगर पेट्रोल एवं डीजल को जीएसटी के 28 फीसद स्लैब के दायरे में लाया गया तो भी राज्यों के पास लोकल सेल्स टैक्स या वैट भी लगाने का अधिकार होगा। ऐसे में बात घूम-फिरकर फिर वहीं आ जाएगी। कीमतें बेलगाम ही रहेंगी।
- केंद्र सरकार को एक्साइज का आधा हिस्सा पेट्रोलियम पदार्थों से प्राप्त होता है और अप्रत्यक्ष कर में इसकी हिस्सेदारी 40 फीसद से ऊपर की है। शायद इसीलिए सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमतों में एक्साइज ड्यूटी को कम करने को लेकर ना-नुकुर कर रही है।