बिहार में पिछले एक पखवाड़े से अधिक समय से चले आ रहे राजनैतिक गतिरोध का अंत कब होगा, सब यही जानना चाहते हैं. कैसे होगा ये सबको मालूम है लेकिन जो भी होगा, राज्य और देश की राजनीति पर उसका असर आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा.
सबसे पहले बात इसकी कि बिहार के महगठबंधन में इतनी गांठ क्यों दिख रही है? उसका कारण सीधा है. राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव के घर पर 7 जुलाई को छापेमारी हुई और सीबीआई ने उनके अलावा उनकी पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, बेटे और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव समेत अन्य लोगों के खिलाफ एक रेगुलर केस दर्ज किया. सीबीआई या तो एफआईआर दर्ज करती है जिसके बाद जांच शुरू करती है या प्राथमिक जांच के बाद एक रेगुलर केस दर्ज करती है. अमूमन देखा ये गया है कि रेगुलर केस में जांच के बाद कुछ साक्ष्य भी जुटाए गए होते हैं और जिन लोगों के खिलाफ ये मामला होता है उनके खिलाफ देर-सबेर चार्जशीट जरूर दायर होती है. वहीं मात्र एफआईआर दर्ज करने के बाद मामले में कई मोड़ आते हैं. लेकिन जमीन के बदले रेलवे के दो होटल, जो रांची और पुरी में हैं, वो मामला सबसे पहले 2008 में नीतीश कुमार की पार्टी ने उजागर किया था. लेकिन उस समय 2017 की तरह जमीन के मालिकों में न राबड़ी देवी का नाम था न ही तेजस्वी यादव का. उस समय लालू यादव रेल मंत्री थे और जमीन उनकी पार्टी के सांसद प्रेमचंद गुप्ता की पत्नी साधना गुप्ता की कंपनी डिलाइट मार्केटिंग के पास थी.
राष्ट्रीय जनता दल का आरोप है कि सीबीआई जांच राजनीति से प्रेरित है. और लालू यादव केंद्र सरकार की जांच एजेंसियों- सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय, के निशाने पर इसलिए हैं क्योंकि वर्तमान मोदी सरकार के खिलाफ वो सबसे मुखर हैं. लेकिन उनकी पार्टी के नेता दबी जुबान में ये भी स्वीकार करते हैं कि लालू यादव ने शायद इस जमीन को अपने परिवार वालों के नाम करने में अपने सब्र और धैर्य का परिचय दिया होता तो शायद वर्तमान संकट का सामना नहीं करना पड़ता. लेकिन लालू यादव के कट्टर विरोधी भी मानते हैं कि संपत्ति लालू यादव की हाल के वर्षों में सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुई है और ये उनके और उनके परिवार के सभी सदस्यों के लिए आने वाले कई वर्षों तक मुश्किलों का सबसे बड़ा कारण साबित होगा. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो लालू यादव की मिट्टी से मॉल तक के प्रकरण में उनकी संपत्ति के खुलासे से शुरू के दिनों में हतप्रभ थे, उन्हें इस बात का अंदाजा हो गया है कि जांच एजेंसियों के पास एक बहुत मुश्किल मामला नहीं है और शायद चारा घोटाले की तरह इन सभी मामलों में भी दोषी साबित करना बहुत कठिन नहीं होगा. लेकिन नीतीश की मुश्किल है कि लालू यादव उनके सत्ता में सहयोगी हैं, इसलिए सार्वजनिक रूप से उन्होंने चुप्पी साध रखी है जिसकी हर तरह से सार्वजनिक व्याख्या हो रही है. फ़िलहाल उनके पास ऐसे विरोधाभासी विश्लेषणों को पढ़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
नीतीश कुमार की पार्टी के अधिकांश लोग जहां इस मामले में तेजस्वी का इस्तीफा या मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाकर इस मामले का जल्द समाधान चाहते हैं, वहीं एक वर्ग उन्हें याद दिला रहा है कि लालू यादव चारा घोटाले में दोषी हैं उसके बावजूद उनसे राजैनतिक गठबंधन किया गया, इसलिए बहुत हायतौबा मचाने का कोई आधार नहीं है. हालांकि पार्टी के ऐसे नेता भूल जाते हैं कि मंत्रिमंडल में लालू नहीं, तेजस्वी मंत्री हैं और शायद नीतीश को इस गड़बड़घोटाले का अंदाजा होता तो उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल ही नहीं करते. लेकिन कांग्रेस और राजद के नेता मानते हैं कि जैसा बर्ताव नीतीश ने अपने मंत्रियों या बीजेपी के नेताओं से पिछले 12 सालों में 4 बार किया, उससे उन्हें अब बचना चाहिए क्योंकि इससे महागठबंधन खतरे में पड़ जाएगा और केंद्र में मोदी सरकार और मजबूत होगी. लालू यादव ने इस मुद्दे पर बीच-बचाव का रास्ता ढूंढने वाले नेताओं को स्पष्ट कर दिया है कि अगर तेजस्वी यादव पर बिना चार्जशीट के इस्तीफे का दबाव दिया गया तब वो मंत्रिमंडल में शामिल राजद के अन्य मंत्रियों को भी इस्तीफा देने का निर्देश देंगे.
राजद के नेताओं और कार्यकर्ताओं का एक बड़ा तबका जो तमाशबीन है, उसका भी मानना है कि ऐसे निर्णय से लालू यादव अपने विरोधियों, खासकर बीजेपी को एक बड़ा मुद्दा बैठे-बिठाये दे देंगे. पार्टी की छवि आम जनता में यही होगी कि परिवारवाद के कारण महागठबंधन को लालू यादव ने तिलांजलि दे दी. और सत्ता में भले मोदी विरोध के नाम पर आए लेकिन अपने परिवार से ज्यादा उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता. जनता दल यूनाइटेड के नेता इससे अलग तर्क देते हैं कि पूरे देश में मोदी लहर में भ्रष्टाचार के मुद्दे की सबसे अहम भूमिका थी और आज तक दस वर्षों तक प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह या उनके परिवार के ऊपर भ्रष्टाचार के एक भी आरोप नहीं लगे. लेकिन उनकी लुटिया उनके सहयोगी दलों जिसमें डीएमके, एनसीपी और आरजेडी शामिल हैं, ने अपने मंत्रालयों में लिए गए निर्णय से डुबो दी. और उस समय भी मनमोहन गठबंधन के कारण मूक दर्शक बने रहने के लिए मजबूर थे. शायद लालू और उनके समर्थक इस सत्य का सामना करने से बच रहे हैं. लेकिन नीतीश के पास मनमोहन सिंह के अनुभव और उसके परिणाम को नजरअंदाज करने का कोई आधार नहीं है. नीतीश ने लालू यादव के खिलाफ चारा घोटाले की लड़ाई लड़ कर और सत्ता में भ्रष्टाचार से कोई समझौता नहीं कर बिहार की जनता का विश्वास जीता है. लालू और नीतीश की राजनीति में सबसे बड़ा आधारभूत अंतर यही है कि जहां लालू यादव के बेडरूम तक राज्य के शराब माफिया से लेकर बालू माफिया तक की पहुंच होती है वहीं नीतीश ने इस देश के एक सबसे बड़े उद्योगपति का दिवाली गिफ्ट तमाम दबावों और पैरवी के बाबजूद भी नहीं लिया क्योंकि उद्योगपति राज्य में निवेश का वादा कर मुकर गए थे.
नीतीश समझते हैं कि यदि एक बार तेजस्वी के मुद्दे पर उन्होंने मनमोहन सिंह की तरह आंखें मूंद लीं तब बिहार में मुस्लिम और यादव वोटर को छोड़कर अन्य सभी वर्गों और जाति के वोटर बीजेपी की शरण में जाने को मजबूर होंगे. ये एक ऐसी सच्चाई है जो राजद और कांग्रेस समझने के बावजूद उसे रोकने के लिए कोई कदम उठाने के लिए तैयार नहीं. नीतीश को 2009 और 2010 का चुनाव याद है जब लालू-पासवान के पास यादव, मुस्लिम और पासवान जाति का पूरा समर्थन होने के बावजूद अन्य जातियों का ध्रुवीकरण होने के कारण चुनावी इतिहास की सबसे करारी पराजय का मुंह देखना पड़ा था. इसलिए नीतीश भले बिहार से दिल्ली तक के कांग्रेस पार्टी के नेताओं के पास फरियादी के रूप में चक्कर लगा रहे हों लेकिन उसके पीछे इस बात का आकलन है कि मोदी बिना कुछ ठोस काम किये केवल इस बात पर चुनाव जीत जाते हैं कि उन्होंने अपने शासन में न खाया, न खाने दिया. ऐसे में भ्रष्टाचार के आरोपियों पर नरमी आत्मघाती हो सकती है. और सत्ता में 12 वर्षों तक रहने के बावजूद नीतीश अपनी कुर्सी बचाने के लिए अपनी छवि को लालू या कांग्रेस के सामने गिरवी नहीं रखेंगे. सब जानते हैं कि वो नीतीश हों या लालू या इस मामले पर हर दिन एक नए तर्क के रचयिता, एक बार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर झुकने का मतलब होगा आने वाले चुनावों में नरेंद्र मोदी को वॉक ओवर देना.