(एनएलएन मीडिया – न्यूज़ लाइव नाऊ) : नई दिल्ली। भारत के सर्वोच्च पराक्रम के दर्शन करवाने वाले एक महान योद्धा के रूप में थे अमर बलिदानी उधम सिंह जिन्हें चाटुकार इतिहासकारों ने केवल आजादी के नकली ठेकेदारों द्वारा फेंके गये सिक्कों की खनक में भुला दिया । उधम सिंह एक राष्ट्रवादी भारतीय क्रन्तिकारी थे जिनका जन्म शेर सिंह के नाम से 26 दिसम्बर 1899 को सुनम, पटियाला, में हुआ था। उनके पिता का नाम टहल सिंह था और वे पास के एक गाँव उपल्ल रेलवे क्रासिंग के चौकीदार थे। सात वर्ष की आयु में उन्होंने अपने माता पिता को खो दिया जिसके कारण उन्होंने अपना बाद का जीवन अपने बड़े भाई मुक्ता सिंह के साथ 24 अक्टूबर 1907 से केंद्रीय खालसा अनाथालय में जीवन व्यतीत किया।दोनों भाईयों को सिख समुदाय के संस्कार मिले अनाथालय में जिसके कारण उनके नए नाम रखे गए। शेर सिंह का नाम रखा गया उधम सिंह और मुक्त सिंह का नाम रखा गया साधू सिंह। साल 1917 में उधम सिंह के बड़े भाई का देहांत हो गया और वे अकेले पड़ गए। वैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के नजदीक जलियांवाला बाग में रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी। भारतीयों की संगठित हो रही ताकत के भय से पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर किसी कीमत पर इस सभा को नहीं होने देना चाहता था और उसकी सहमति से ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने जलियांवाला बाग को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग करा दी। अंग्रेजों को यह बात पसंद नहीं आई और अंग्रेजों के एक अफसर जनरल माइकल ओ डायर ने वहां एकत्रित सभी लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलवानी शुरू कर दीं। इस हादसे में हजार से ज्यादा लोग और बच्चे भी मारे गए। 2000 से ज्यादा जख्मी हुए। सैकड़ों महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों ने जान बचाने के लिए कुएं में छलांग लगा दी। यहाँ ध्यान रखने योग्य है कि इसी सभा में ऊधम सिंह पानी पिलाने का काम कर रहे थे। सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोगों की इस घटना में जान चली गई। स्वामी श्रद्धानंद के मुताबिक मृतकों की संख्या 1500 से अधिक थी। अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ। स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से ज्यादा थी। जलियांवाला बाग की इस घटना ने ऊधम सिंह के मन पर गहरा असर डाला था और इसीलिए उन्होंने इसका बदला लेने की ठान ली थी। ऊधम सिंह अनाथ थे और अनाथालय में रहते थे, लेकिन फिर भी जीवन की प्रतिकूलताएं उनके इरादों से उन्हें डिगा नहीं पाई। उन्होंने 1919 में अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जंग–ए–आजादी के मैदान में कूद पड़े। उन्होंने बाग की मिट्टी हाथ में लेकर ओडायर को मारने की सौगंध खाई थी। अपनी इसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के मकसद से वह 1934 में लंदन पहुंच गए और सही वक्त का इंतजार करने लगे। ऊधम को जिस वक्त का इंतजार था वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओडायर लंदन के कॉक्सटन हाल में एक सेमिनार में शामिल होने गया। भारत के इस सपूत ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के आकार के रूप में काटा और उसमें अपनी रिवॉल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। चमन लाल के अनुसार मोर्चा संभालकर बैठे ऊधम सिंह ने सभा के अंत में ओडायर की ओर गोलियां दागनी शुरू कर दीं। सैकड़ों भारतीयों के कत्ल के गुनाहगार इस गोरे को दो गोलियां लगीं और वह वहीं ढेर हो गया।
अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के बाद इस महान क्रांतिकारी ने समर्पण कर दिया। उन पर मुकदमा चला और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में यह वीर हंसते हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया । जब इस महान बलिदानी से इनकी अंतिम इच्छा पूछी गयी थी तब इन्होने सीधे सीधे कहा था कि इनकी अंतिम इच्छा थी उस हत्यारे डायर को मारने की थी जो अब पूरी हो गयी और इसके साथ ही ये वीर सदा सदा के लिए अमरता को प्राप्त हुआ था ।। आज इस वीर के द्वारा प्रदान किये गये गौरवान्वित करने वाले दिन अर्थात डायर की मौत के दिवस की सभी भारतीय राष्ट्रवादियो को शुभकामनाएं और ऐसे दिनों को सदा सदा के लिए जनता को बताते रहने का NLN का संकल्प भी … ऊधम सिंह अमर रहें ।