(एनएलएन मीडिया – न्यूज़ लाइव नाऊ) : नई दिल्ली। जिस महान व्यक्तित्व की आज जयंती है वो आज भी जीवंत हैं अपने विचारो के साथ . उनका नाम स्वामी विवेकानंद है जिन्होंने हिंदुत्व को ऐसी दिशा दी थी जो आज भी गतिमान है अपने ले में . दिवंगत स्वामी विवेकानंद जी ने इस बात को बेहतर ढंग से एक कुशल दूरदृष्टा होते हुए पहचाना था और कहा था- एक हिन्दू का धर्मान्तरण केवल एक हिंदू का कम होना नहीं, बल्कि एक शत्रु का बढ़ना है। कश्मीर ही नहीं पूरे भारत में में हम यही देख और झेल रहे हैं। स्वामी विवेकानंद इस क्रूर मजहबी आक्रमण के विरुद्ध निर्भीकता से खड़े हुए और उन्होंने अपने तर्कपूर्ण भाषणों से पश्चिमी समाज को बताया कि पश्चिम के लोगों को यदि कोई मनुष्यता का पाठ पढ़ा सकता है और उनके जीवन में शांति, परोपकार, सद्भाव तथा दूसरे मत के प्रति आदर की भावना ला सकता है तो वह है भारत का हिन्दू धर्म और दर्शन। स्वामी विवेकानंद के इन शक्तिशाली विचारों का आज भी देश के युवाओं पर गहरा असर है। इसका एक उदाहरण कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी बेलगावी में प्रदेश के प्रसिद्ध लेखक चक्रवर्ती सुलीबेले द्वारा आयोजित विवेकानंद-निवेदिता साहित्य सम्मेलन है जिसमें हजारों युवाओं ने दो दिन विवेकानंद साहित्य तथा उसके प्रभाव के विभिन्न पक्षों पर चर्चा की। धर्म को राष्ट्रहित से जोड़े बिना राष्ट्रधर्म नहीं बनता। केवल साधना वैसे ही स्वार्थ-साधना बन जाती है जैसे सड़क-पानी-बिजली मात्र को राष्ट्रीयता मानना। दोनों तत्वों का समन्वय राष्ट्रहित एवं राष्ट्रीयता को सार्थक करता है।
स्वामी विवेकानंद जी का जन्म आज के ही दिन अर्थात 12 जनवरी सन् 1863 को हुआ। उनका घर का नाम नरेंद्र दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंगरेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहाँ उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ। सन् 1884 में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते। आपका परिवार धनी, कुलीन और उदारता व विद्वता के लिए विख्यात था । विश्वनाथ दत्त कोलकाता उच्च न्यायालय में अटॉर्नी-एट-लॉ (Attorney-at-law) थे व कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकालत करते थे। वे एक विचारक, अति उदार, गरीबों के प्रति सहानुभूति रखने वाले, धार्मिक व सामाजिक विषयों में व्यवहारिक और रचनात्मक दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति थे . माता भुवनेश्वरी देवी जी सरल व अत्यंत धार्मिक महिला थीं । आपके पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से तीव्र थी और परमात्मा में व अध्यात्म में ध्यान था। इस हेतु आप पहले ‘ब्रह्म समाज’ में गये किन्तु वहाँ आपके चित्त संतुष्ट न हुआ। इस बीच आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए उत्तीर्ण कर ली और कानून की परीक्षा की तैयारी करने लगे।
रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। कैंसर के कारण गले में से थूंक, रक्त, कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वे खूब ध्यान से करते थे। 16 अगस्त 1886 को स्वामी परमहंस परलोक सिधार गये। 1887 से 1892 के बीच स्वामी विवेकानन्द अज्ञातवास में एकान्तवास में साधनारत रहने के बाद भारत-भ्रमण पर रहे। आप वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे। स्वामी विवेकानंद वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। आपने अमेरिका स्थित शिकागो में 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द के कारण ही पहुँचा। आपने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जो आज भी अपना काम कर रहा है।
आप स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य व प्रतिभावान शिष्य थे। आपको अमरीका में दिए गए अपने भाषण की शुरुआत “मेरे अमेरिकी भाइयों एवं बहनों” के लिए जाना जाता है । 4 जुलाई, 1902 को आप एक बीमारी के चलते बेहद अल्पायु में परलोक सिधार गये। आज ज्ञान और हिंदुत्व के उन अमर स्तम्भ स्वामी विवेकानंद जी को उनकी जयंती पर NLN परिवार बारम्बार नमन और वंदन करता है और उनकी यशगाथा को सदा अमर रखने के लिए संकल्प लेता।