इतिहास पर गौर किया जाय तो ये पाया जाएगा कि 17 वीं शताब्दी के अन्त में दक्षिण भारत का अधिकांश भाग अर्काट के नवाब के अधीन था। अंग्रेजों से डरा सहमा सा रहने वाला वह कायर लगान भी ठीक से वसूल नहीं कर पाता था। अतः उसने ये काम ईस्ट इंडिया कम्पनी को दे दिया जो कुल मिला कर भारत को कब्ज़ा करने के ही कुत्सित उद्देश्य से ही आये थे .. नवाब के इस धूर्तता से मिले उपहार को अंग्रेजों ने भुना लिया और उसके बाद ; अंग्रेज छल, बल से लगान वसूलने लगे। उनकी शक्ति से अधिकांश राजा डर गये; पर तमिलनाडु के पांड्य नरेश कट्टबोमन ने झुकने से मना कर दिया। इस वीर बलिदानी ने अपने जीते जी धूर्त अंग्रेजों को एक पैसा नहीं दिया।
महायोद्धा और अमर बलिदानी कट्टबोमन (बोम्मु) का जन्म आज ही के दिन अर्थात तीन जनवरी, 1760 को हुआ था। कुमारस्वामी और दोरेसिंह नामक उनके दो भाई और थे। दोरेसिंह जन्म से ही दिव्यांग अर्थात मूक बधिर थे लेकिन दिव्यन्गता को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने कई बार अपने भाई को संकट से न केवल बचाया अपितु प्रतिउत्तर देने में उनकी मदद भी की थी . बोम्मु पांड्य नरेश जगवीर के सेनापति थे। उनकी योग्यता एवं वीरता देखकर राजा ने अपनी मृत्यु से पूर्व उन्हें ही राजा बना दिया। राज्य का भार सँभालते ही बोम्मु ने नगर के चारों ओर सुरक्षा हेतु मजबूत परकोटे बनवाये और सेना में नयी भर्ती की। उन्होंने जनता का पालन अपनी सन्तान की तरह किया। इससे उनकी लोकप्रियता सब ओर फैल गयी।
दूसरी ओर अंग्रेजो ने उनके राज्य के आसपास अपना आधिपत्य अचानक ही बढ़ाना शुरू कर दिया । उस समय ईस्ट इण्डिया कंपनी का प्रतिनिधि मैक्सवेल वहाँ तैनात था। उसने बहुत प्रयास किया; पर बोम्मु दबे नहीं। छह वर्ष तक दोनों की सेनाओं में संघर्ष चलता रहा; पर अंग्रेज सफल नहीं हुए। अब मेक्सवेल ने अपने दूत एलन को एक पत्र देकर बोम्मु के पास भेजा। उसका कहना था कि, सब राजा कर दे रहे हैं, इसलिए चाहे थोड़ा ही हो; पर वह कुछ कर अवश्य दे। लेकिन बोम्मु ने एलन को सबके सामने अपमानित कर अपने दरबार से निकाल दिया।
अब अंग्रेजों ने जैक्सन नामक अधिकारी की नियुक्ति की। उसने बोम्मु को अकेले मिलने के लिए बुलाया; पर अपने गूँगे भाई के कहने पर वे अनेक विश्वस्त वीरों को साथ लेकर गये। वहाँ जैक्सन ने अपने साथी क्लार्क को बोम्मु को पकड़ने का आदेश दिया; पर बोम्मु ने इससे पहले ही क्लार्क का सिर कलम कर दिया। अब जैक्सन के बदले लूशिंगटन को भेजा गया। उसने फिर बोम्मु को बुलाया; पर बोम्मु ने मना कर दिया। इस पर कम्पनी ने मेजर जॉन बैनरमैन के नेतृत्व में सेना भेजकर बोम्मु पर चढ़ाई कर दी।
इस समय बोम्मु के भाई तथा सेनापति आदि जक्कम्मा देवी के मेले में गये हुए थे। बोम्मु ने उन्हें सन्देश भेजकर वापस बुलवा लिया और सेना एकत्र कर मुकाबला करने लगे। शुरू में तो उन्हें सफलता मिली; पर अन्ततः पीछे हटना पड़ा। वह अपने कुछ साथियों के साथ कोलारपट्टी के राजगोपाल नायक के पास पहुँचे; पर एक देशद्रोही एट्टप्पा ने इसकी सूचना शासन को दे दी। अतः उन्हें फिर जंगलों की शरण लेनी पड़ी। कुछ दिन बाद पुदुकोट्टै के राजा तौण्डेमान ने उन्हें बुला लिया; पर वहां भी धोखा हुआ और वे भाइयों सहित गिरफ्तार कर लिये गये। 16 अक्तूबर, 1799 को कायात्तरु में उन्हें फाँसी दी गयी। फाँसी के लिए जब उन्हें वहाँ लाया गया, तो उन्होंने कहा कि मैं स्वयं फन्दा गले में डालूँगा।
- इस पर उनके हाथ खोल दिये गये। बोम्मु ने नीचे झुककर हाथ में मातृभूमि की मिट्टी ली। उसे माथे से लगाकर बोले – हे माँ, मैं फिर यहीं जन्म लूँगा और तुम्हें गुलामी से मुक्त कराऊँगा। यह कहकर उन्होंने फाँसी का फन्दा गले में डाला और नीचे रखी मेज पर लात मार दी और सदा सदा के लिए अमरता को प्राप्त हो गए।